लेखनी कहानी -09-Mar-2023- पौराणिक कहानिया
नौ बजे विनयसिंह
उससे मिलने आए।
वह मानसिक अशांति
की दशा में
बैठी हुई अपने
संदूकों में से
सोफी के लिए
खरीदे हुए कपड़े
निकाल रही थी
और सोच रही
थी कि इन्हें
उनके पास कैसे
भेजूँ। खुद जाने
का साहस न
होता था। विनयसिंह
को देखकर बोली-क्यों विनय, अगर
तुम्हारी स्त्री अपनी किसी
सहेली को कुछ
दिनों के लिए
अपने साथ रखना
चाहे, तो तुम
उसे मना कर
दोगे, या खुश
होगे?
विनय-मेरे सामने
यह समस्या कभी
आएगी ही नहीं,
इसलिए मैं इसकी
कल्पना करके अपने
मस्तिष्क को कष्ट
नहीं देना चाहता।
इंदू-यह समस्या
तो पहले ही
उपस्थित हो चुकी
है।
विनय-बहन, मुझे
तुम्हारी बातों से डर
लग रहा है।
इंदु-इसीलिए कि तुम
अपने को धोखा
दे रहे हो;
लेकिन वास्तव में
तुम उससे बहुत
गहरे पानी में
हो, जितना तुम
समझते हो। क्या
तुम समझते हो
कि तुम्हारा कई-कई दिनों
तक घर में
न आना, नित्य
सेवा-समिति के
कामों में व्यस्त
रहना, मिस सोफ़िया
की ओर ऑंख
उठाकर न देखना,
उसके साये से
भागना, उस अंतर्द्वंद्व
को छिपा सकता
है, जो तुम्हारे
हृदय-तल में
विकराल रूप से
छिड़ा हुआ है?
लेकिन याद रखना,
इस द्वंद्व की
एक झंकार भी
न सुनाई दे,
नहीं तो अनर्थ
हो जाएगा। सोफ़िया
तुम्हारा इतना सम्मान
करती है, जितना
कोई सती अपने
पुरुष का भी
न करती होगी।
वह तुम्हारी भक्ति
करती है। तुम्हारे
संयम, त्याग और
सेवा ने उसे
मोहित कर लिया
है। लेकिन अगर
मुझे धोखा नहीं
हुआ है, तो
उसकी भक्ति में
प्रणय का लेश
भी नहीं। यद्यपि
तुम्हें सलाह देना
व्यर्थ है, क्योंकि
तुम इस मार्ग
की कठिनाइयों को
खूब जानते हो,
तथापि मैं तुमसे
यही अनुरोध करती
हूँ कि तुम
कुछ दिनों के
लिए कहीं चले
जाओ। तब तक
कदाचित् सोफी भी
अपने लिए कोई-न-कोई
रास्ता ढूँढ़ निकालेगी। सम्भव
है, इस समय
सचेत हो जाने
से दो जीवनों
का सर्वनाश होने
से बच जाए।
विनय-बहन, जब
सब कुछ जानती
हो ही, तो
तुमसे क्या छिपाऊँ।
अब मैं सचेत
नहीं हो सकता।
इन चार-पाँच
महीनों में मैंने
जो मानसिक ताप
सहन किया है,
उसे मेरा हृदय
ही जानता है।
मेरी बुध्दि भ्रष्ट
हो गई है,
मैं ऑंखें खोकर
गढ़े में गिर
रहा हूँ, जान-बूझकर विष का
प्याला पी रहा
हूँ। कोई बाधा,
कोई कठिनाई, कोई
शंका अब मुझे
सर्वनाश से नहीं
बचा सकती। हाँ,
इसका मैं तुम्हें
विश्वास दिलाता हूँ कि
इस आग की
एक चिनगारी या
एक लपट भी
सोफी तक न
पहुँचेगी। मेरा सारा
शरीर भस्म हो
जाए, हड्डियाँ तक
राख हो जाएँ;
पर सोफी को
उस ज्वाला की
झलक तक न
दिखाई देगी। मैंने
भी यही निश्चय
किया है कि
जितनी जल्दी हो
सके, मैं यहाँ
से चला जाऊँ-अपनी रक्षा
के लिए नहीं,
सोफी की रक्षा
के लिए। आह!
इससे तो यह
कहीं अच्छा था
कि सोफी ने
मुझे उसी आग
में जल जाने
दिया होता; मेरा
परदा ढँका रह
जाता। अगर अम्माँ
को यह बात
मालूम हो गई,
तो उनकी क्या
दशा होगी। इसकी
कल्पना ही से
मेरे रोएँ खड़े
हो जाते हैं।
बस, अब मेरे
लिए मुँह में
कालिख लगाकर कहीं
डूब मरने के
सिवा और कोई
उपाय नहीं है।
यह कहकर विनयसिंह
बाहर चले गए।
इंदु 'बैठो-बैठो'
कहती रह गई।
वह इस समय
आवेश में उससे
बहुत ज्यादा कह
गए थे, जितना
वह कहना चाहते
थे। और देर
तक बैठते, तो
न जाने और
क्या-क्या कह
जाते। इंदु की
दशा उस प्राणी
की-सी थी,
जिसके पैर बँधो
हों और सामने
उसका घर जल
रहा हो। वह
देख रही थी,
यह आग सारे
घर को जला
देगी; विनय के
ऊँचे-ऊँचे मंसूबे,
माता की बड़ी-बड़ी अभिलाषाएँ,
पिता के बड़े-बड़े अनुष्ठान,
सब विधवंस हो
जाएँगे। वह इन्हीं
शोकमय विचारों में
पड़ी सारी रात
करवटें बदलती रही। प्रात:काल उठी,
तो द्वार पर
उसके लिए पालकी
तैयार खड़ी थी।
वह माता के
गले से लिपटकर
रोई, पिता के
चरणों को ऑंसुओं
से धोया और
घर से चली।
रास्ते में सोफी
का कमरा पड़ता
था। इंदु ने
उस कमरे की
ओर ताका भी
नहीं। सोफी उठकर
द्वार पर आई,
और ऑंखों में
ऑंसू भरे हुए
उससे हाथ मिलाया।
इंदु ने जल्दी
से हाथ छुड़ा
लिया और आगे
बढ़ गई।